अफ़साना

रोज़ाना की तरह मैं अपनी छत पर साँझ होते आस्मां को देखने के लिए बेताब , जल्दी जल्दी सीढ़ियाँ चढ़ रही थी। कदम अस्त होते सूर्य की तरफ बढ़े ही थे की पैर के नीचे एक क्रिकेट बॉल आकर रुक गयी।

एक उम्दा आवाज़ ने मेरा ध्यान खींचा। “बॉल दे दीजिये।” एक हमउम्र सा अनजान लड़का पड़ोसी छत से बॉल मांग रहा था। मैंने उसे अपनी ऊँची छत से मुझे झाँकते हुए देखा और वो मुस्कुराने लगा , मैंने पूरा दम लगाकर गेंद फेंक दी। वह खुश हो गया। मैंने सूर्य की किरणों से प्रकाशमान आकाश देखा, गुलाबी सा हो चला था, सुर्ख बादल और घरोंदे में जाते हुए पक्षी, क्या मनमोहक नज़ारा था ।

मन ही मन मुस्कुराते हुए मैंने तुम्हे फ़ोन किया। हम हर शाम बात किया करते थे, तुम भी रोज़ मेरा इंतज़ार किया करते थे, कि कब मैं फ़ोन करूं और इस शाम की सुबह हो जाये , ये रात रौशनी सी जगमग हो जाये, तेरी आवाज़ जो मेरे कानों में पड़ जाये। सुकून ही नहीं मिलता था न जाने ऐसा क्या था तेरी आवाज़ में । लॉक डाउन में मिलना न मुमकिन सा हो गया था। तुम्हारी यादों के सहारे ही दिन कट रहे थे।

मैं छत पर टहलते हुए तुमसे बात कर रही थी , कि अचानक से बॉल दुबारा मेरी छत पर आ गयी। मैंने उस लड़के को फिर से देखा और बॉल दोबारा उसकी छत पर फेंक दी। मेरा छत पर जाकर तुमसे बात करने का सिलसिला चलता रहा और उस लड़के का रोज़ मुझे बॉल से तंग करने का।

एक दिन मैं जरा देरी से छत पर पहुंची , वह लड़का मेरी छत की ओर टकटकी लगाए ही देख रहा था। मैंने अपनी नज़रें घुमाई और 6 -7 गेंदे मेरी छत पर इधर उधर पड़ी हुई थी। बॉल लेने को लालायित वह लड़का मुझे देखते ही बोल पड़ा “प्लीज बॉल दे दीजिये” मैं खिलखिला कर हँस पड़ी और मैंने एक एक करके गेंद फेंकना शुरू कर दिया। छत थोड़ी ऊँची थी, वह पकड़ता रहा और अंत में जाकर बोला “थैंक यू। “

तुमसे बात करते हुए , बार बार बॉल छत पर आकर गिरती और मैं स्वतः ही उठा कर उस लड़के की छत पर फेंक देती। बॉल आने का सिलसिला चलता रहता था और मेरे नीचे जाते ही थम जाया करता था। अक्सर नीचे जाते हुए मुझे वह लड़का बड़ी ही मायूसी से देखा करता था। शायद क्रिकेट बॉल कौन लौटाएगा इसी बात की मायूसी थी। आज नीचे जाते हुए उस लड़के की आवाज़ आयी “बॉल दे दीजिये” , मैंने इधर उधर देखा , बॉल नज़र नहीं आयी। “कहाँ है बॉल ?” तो उसने इशारा करते हुए मुझे बाल दिखाई , एक नहीं तीन बॉल लुढ़क रही थी। मैंने दम लगा कर उसकी ऊँची छत पर गेंद फेंक दी। “ज्यादा परेशान तो नहीं कर देता हूँ आपको। ” बड़ी ही प्यारी आवाज़ में वो अपनी ऊँची छत से मुझे नीचे देखते हुए कहने लगा। मैंने हौले से मुस्कुरा कर कहा “नहीं।”

“मेरा नाम संस्कार है। क्रिकेट खेल कर टाइम पास कर रहे हैं लॉक डाउन में।” मैंने अपनी आँखें ऊपर की ओर करते हुए उसे देखा। बॉल लिए हाथ में एक टक मुझे देख रहा था। मुझे न जाने क्यों अच्छा सा लगा। मैं उसे अपना नाम नहीं बताना चाहती थी, मैंने उसे देखकर अपना हाथ लहराते हुए हेलो कह दिया।

कुछ दिनों बाद लॉक डाउन खत्म हो गया और मुझे कई महीनों तक संस्कार नहीं दिखा। सूर्य अस्त हो गया और मैं उसके बारे में भूल गयी थी। एक वर्ष हो चला था , शाम को तुमसे बात करते हुए बिना मिले कब एक अरसा गुज़र गया पता भी नहीं चला।

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दूसरा लॉक डाउन लग चुका है। एक साल तक निरंतर घर पर रहने की अब आदत बन चुकी है। रोज़ अब सूर्यास्त भी बोझिल सा प्रतीत होने लगा है। सूर्य की अस्त होती किरणे रुकी हुयी ज़िन्दगी जैसी हो गयी थी। मैं बेबस सी छत पर घूम रही थी कि अचानक एक बॉल मेरी छत पर आकर गिरी। मैंने उसकी छत की ओर देखा , काफी बदला सा दिख रहा था , पर मुस्कराहट ज्यों की त्यों । मैंने बॉल उठाकर फेंकी और मेरी नीरस सी ज़िन्दगी में जैसे रंग भर गए। मैं नाम याद करने की कोशिश करने लगी। संस्कार , संस्कार मिश्रा। होठों पर अनायास ही मुस्कान छा गयी।

अब मैं तुमसे फ़ोन पर बात करने से पहले संस्कार से दो मिनट ज़रूर बात करलेती थी, और उसकी बॉल का मेरी छत पर आना अनावरत जारी था। आईपीएल के मैच शुरू हो चुके थे। संस्कार कुछ दिनों से छत से नदारद था। एक दिन खाना खाते वक़्त मैंने टीवी पर दिल्ली कैपिटल्स को खेलते देखा। ऐसा लगा जैसे संस्कार ही खेल रहा हो। मैंने टीवी से अपना ध्यान हटाया और बॉल के बहाने हो रही गुफ्तगू को याद कर मुस्कुराने लगी। संस्कार कभी तो शाम को दिखता था कभी नहीं।

आज मैं अपनी छत पर गयी और संस्कार को खोजने लगी, वह पीछे किसी छोटे बच्चे से अपनी बॉल मांग रहा था। मैंने देखा और बच्चा बॉल उसकी ऊँची छत तक नहीं फेंक पा रहा था। बच्चे के हाथ 4 -5 गेंद देख कर मुझे उस पर दया हो आई। मुझे देखते ही उसने मुझे मुस्कुरा कर हेलो बोला। मैंने भी प्रत्युत्तर में अपना हाथ लहरा दिए। शायद मुझे प्रभावित करने के लिए उसने बच्चे को बॉल उपहार स्वरुप भेंट कर दी। मैंने उसे देखा और थोड़ा सा झुकाव मेरा उसके प्रति जाग्रत हो उठा।

मैंने रोज़मर्रा की तरह तुम्हे फ़ोन मिलाया और बात करने लगी। संस्कार शायद समझता तो होगा की मैं अपने प्रेमी से बात करती हूँ , फिर भी कैसी कशिश है , न मुझे अजीब लगता है न उसे, ये कैसी बेबुनियाद चाहत है ? शायद मैं संस्कार के मनोभाव समझ रही थी , या मैं खुद उस मनोभाव को महसूस भी कर रही थी , कैसे अचानक उसके आने से मेरी उदासीन शामें अब खिली खिली से हो चली थी।

आज कुछ दिनों बाद फिर से संस्कार गायब था और दिल्ली कैपिटल्स का मैच चल रहा था। मैंने ध्यान से देखा और मुझे फिर से संस्कार नज़र आया। क्या ये वही है या मेरी आँखों से धोखा हो रहा था। मैंने टीवी की ओर आँखें गड़ा ली और इतने में बत्ती गुल हो गयी। आजकल मुझे हर जगह संस्कार ही दिखने लगा है ऐसा सोच मैंने अपने मन को झटक दिया।

मैंने अगले दिन टहलने गयी तो छत पर संस्कार को दिल्ली कैपिटल्स की फिरोज़ी रंग की टी शर्ट पहने देख चौंक उठी। ये क्या ? मैं ठिठक कर अपनी छत के कोने में खड़ी रह गयी। “बॉल दे दीजिये प्लीज” संस्कार ने उसी उम्दा लहज़े में कहा। मैंने बिना मुस्काये उसकी ऊँची छत पर बॉल फेंक दी। मैं बिना टहले नीचे वापस आगयी। मुझे अपनी नादानी पर शर्म हो आयी। मैंने अपने भाई को देखा और उसने दिल्ली कैपिटल्स की शर्ट पहन रखी थी। मुझे अपने ऊपर विश्वास ही नहीं हुआ। सबको पता था मुझे छोड़कर, और मैंने उसे अपना नाम भी नहीं बताया। और मैं समझती रही वो मुझे तंग करता है, जबकि वो तो महज़ अभ्यास कर रहा होता था। कैसी पगली ठहरी मैं भी। सबको प्यार समझ बैठी।

मन थोड़ा उदास हो चला था।अपने पागलपन पर अफ़सोस कर रही थी की अचानक मेरा फ़ोन बज उठा। मैंने अपना फ़ोन देखा तो मुझे इंस्टाग्राम पर संस्कार मिश्रा की फॉलो रिक्वेस्ट आयी थी। करोड़ो फोल्लोवेर्स और एक मैं , होठों पर अनायास ही मुस्कान आगयी। गेंद शायद शुरू से ही हमारे पाले में थी।

Author: Onesha

She is the funny one! Has flair for drama, loves to write when happy! You might hate her first story, but maybe you’ll like the next. She is the master of words, but believes actions speak louder than words. 1sha Rastogi, founder of 1shablog.com.

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